Monday, December 23, 2024
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N. Raghuraman’s column – When will we train ourselves to listen to the silent cries of society? | एन. रघुरामन का कॉलम: हम समाज की खामोश चीखें सुनने के लिए खुद को कब प्रशिक्षित करेंगे?

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15 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु - Dainik Bhaskar

एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

“मां, मां तुम कहां हो? मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं मां, जल्दी आओ प्लीज, मां प्लीज आओ ना… मुझे पता है कि तुमने इन नौ महीनों में मेरी कितनी देखभाल की है, मुझे पता है कि तुम मुझसे सबसे ज्यादा प्यार करती हो। तुमने मुझे इन दिनों कितनी कहानियां सुनाईं और मुझे बताया कि तुम कितनी खूबसूरत दुनिया में रह रही हो और मुझे उस खूबसूरत दुनिया का सामना करने के लिए तैयार किया, जिसमें मैं प्रवेश करने जा रहा हूं। मां, प्लीज मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं मां, जल्दी आओ… मुझे पता है मां, तुम मुझे बचाने आओगी, मां।’ आप सोच रहे होंगे कि यह सब किसने और किससे कहा है? जानने के लिए आगे पढ़ें!

मुम्बई के कामा एंड एलब्लेस अस्पताल में अपनी नाइट शिफ्ट में एक मरीज को देखने के दौरान स्टाफ नर्स अंजलि कुलथे ने एक छोटा-सा धमाका सुना। उन्होंने महिलाओं और बच्चों के उस बड़े अस्पताल के पीछे की तरफ की खिड़की से बाहर झांका।

उन्होंने देखा कि दो लोग पीछे के बंद गेट से कूदे, परिसर में प्रवेश किया और दो गार्डों को गोली मार दी। प्रवेश द्वार पर खून से लथपथ दो बेजान शवों को देखकर अंजलि घबरा गईं, वे तेजी से भागीं और प्रसव-पूर्व देखभाल वार्ड के भारी दोहरे दरवाजे बंद कर दिए।

दोनों आतंकवादी- अजमल कसाब और उसका लंबा साथी अबू इस्माइल- उस मंजिल पर तेजी से चढ़ रहे थे, जहां वे थीं। वे जल्दी से सभी गर्भवती महिलाओं और उनके कुछ परिजनों को वार्ड के दूर के छोर पर एक छोटी-सी पेंट्री में ले गईं। इस्माइल ने खिड़की से उनकी दिशा में दो गोलियां चलाईं।

एक गोली दीवार से टकराकर एक आया के हाथ में जा लगी, जिससे उन्हें बहुत खून बहने लगा। अंजलि और दूसरे स्टाफ सदस्य उनका इलाज करते रहे और घंटों चुपचाप खड़े रहे, जब तक कि बाहर का शोर शांत नहीं हो गया। जैसे ही उन्हें उम्मीद हुई कि अब संकट टल गया होगा, वार्ड में एक महिला को प्रसव-पीड़ा शुरू हो गई।

अगर देरी होती तो दो जानें खतरे में पड़ सकती थीं। अंजलि ने उनकी मदद के लिए अपनी जान को जोखिम में डालने का फैसला किया। तब तक दोनों हथियारबंद आतंकवादियों ने छत पर फिर से आतंक मचाना शुरू कर दिया था और कई डॉक्टरों को बंधक बना लिया था। लेकिन अंजलि और कुछ समर्पित स्टाफ-सदस्य- अपने स्वयं के जीवन के अनिश्चय में होने के बावजूद- दूसरी मंजिल पर एक शांत प्रसव कक्ष में सिर्फ एक ट्यूबलाइट की रोशनी में एक नई जिंदगी को दुनिया में ला रहे थे।

अंजलि, मरीज का हाथ पकड़े हुए, उस अजन्मे बच्चे की सुरक्षा के बारे में सोचते हुए, सीढ़ी की दीवार के साथ-साथ ऊपर जाती हैं। और आखिरकार वह महिला डॉक्टरों की मदद से अपने बच्चे को सुरक्षित रूप से जन्म देने में सक्षम हो जाती है।

आप सोच सकते हैं कि ऊपर लिखे शब्द उस बच्चे ने कहे होंगे, जो आज 16 साल का है। हो सकता है। क्योंकि सभी बच्चे अपनी मां से चुपचाप बातें करते हैं और मांओं को भगवान ने उन अनकही बातों को सुनने की क्षमता दी है। इस साधारण विचार ने मुझे एक घंटे तक रुलाया।

जानते हैं क्यों? क्योंकि मैंने कल्पना की कि ये शब्द उन बच्चों के भी हो सकते हैं, जो दुर्भाग्य से इस शुक्रवार रात 10.30 बजे झांसी के महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज के नवजात शिशु गहन चिकित्सा इकाई (एनआईसीयू) वार्ड में लगी भीषण आग में जलने और दम घुटने से मारे गए।

​हालांकि बड़ी संख्या में बच्चों की जान बचा ली गई। लेकिन अगर अस्पताल के कर्मचारियों की इस बात की कोई आपातकालीन ड्रिल होती कि अस्पताल का हर कर्मचारी- चाहे वह किसी भी विभाग का क्यों न हो- मदद की जरूरत वाले बच्चों और बुजुर्गों की किस तरह से मदद करेगा, तो यह अनहोनी टाली जा सकती थी।

फंडा यह है कि ऐसी बहुत-सी समस्याएं रोजाना चुपचाप चीखती रहती हैं। अगर हम खुद को उन खामोश चीखों को सुनने के लिए प्रशिक्षित नहीं करते हैं, तो हमारी सारी तरक्की बेकार है।

खबरें और भी हैं…

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